वीक हंसण तो कमाल छी
पर वीक जाणक भ्हौत मलाल छी,
मुख पर हमार लगे गे ऊ दाग
हमूल समझौ ऊ गुलाल छी।
रात भर ऊंछी वीकै स्वैण
दिन भर वीकै खयाल छी,
उडि गे नीन आब म्येरि आंखोंकि
वीक कौस ऊ सवाल छी।
करण बैठूं दिलक सौद जब लै "मदन"
जो लै मिलौ ऊ दलाल छी॥
........मदन मोहन बिष्ट, शक्ति विहार, रुद्रपुर.....
भाई साहब!
ReplyDeleteआपकी कुमाऊंनी कविता के भाव आनन्द दायक हैं।
ऐसा फागुन में ही संभव है। सराहनीय लेखन के लिए बधाई।
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वह साड़ी में थी हरी - हरी।
रसभरी रसों से भरी - भरी॥
नैनों से डाका डाल गई-
बंदूक दग गई धरी - ध्ररी॥
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
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