Tuesday, September 28, 2010

जनमबार

पत्त नै किलै लोग जनम्बार मनूनी,         
इष्ट मित्र लै मिल बे खूब कौतिक लगूनी,           
योस के करो जाणि साल भर वील,                   
जो भकार भर जानी गिफ़्ट और बधाईल।

इन्सान लै आब खूबै समझदार हैगो,        
जाणूं येक जीवन आब एक साल कम रैगो,     
तब्बै खुशीयोंक दी जलूणक रिवाज आब न्हैगो,       
जनमबारे दिन मोमबत्ती बुझोंणक चलन हैगो।                 

जिन्दगी त्यर एक साल आइ कम हैगो,        
पत्त नै कतु टैम  त्यर यां आइ रैगो,                 
धपोड्लै जब केक तू जनमबार पर,            
झन भुलिये वां बैठ रौ क्वे त्यर इन्तजार पर।      

आपण सब्बै करनी, दुसरों लिजि लै कुछ कर जा, 
आघिल पिछ्याडि जाण सबूल छू  भल कर बे, बेशक आघिल न्है जा,         
मरी बाद लै लोग मनाल त्यर जनम्बार ,             
ज्योन छिना भाल काम यास करजा  द्वि चार।

ज्योन छिना भाल काम करजालै द्वि-चार,
जाण बाद लै मनाल लोग त्यर जनम्बार हर बार।             
 ...........................................................................मदन मोहन बिष्ट

Friday, September 24, 2010

यौस झन समझिया मिं डरुणई....

क्वे लूंण रव्टल पेट भरर्णों,
क्वे कुकुड़ तितिर खैबै लै भुक्कै रूणों,
कुकुड़ तितिर ऑब बिलुप्तीक कगार पर छिन,
लोग तुमुन्कौ लै चै रयी, बच बे रया, .....यौस झन समझिया मिं डरुणई

गरीब नवाज लौकि आब पहुँच बे दूर न्हे गे,
जब बे जूसक चलन चलौ, लौकि लै VIP हैगे.
गदू, कर्याल लै रिशार थै रिशाई रिशाई जा छिन,
सोचो के बणाला के खाला, ....यौस झन समझिया मिं डरुणई

राजा महाराजा न्हे गेईं, आब मन्त्री सन्त्री ऐ गेईं.
पेट भरणक मजबूरी छु, चारा, सूटकेस, सड़क सब खाण लै रयी,
समान तुमर पास लै छु वीक सुरक्ष्याक तुम खुद जिम्मेदार छा, .....यौस झन समझिया मिं डरुणई

टीवी पर, मंच पर अधनंग मैंस पोज बणे बणे बे कशरत सिखूणई,
सब देखा देख उस्से करण लाग रईं,
उधिन के हौल जब सैणी उस्से सिखूँण लागल,
टीवी कं या नान्तिना कं, कैकं लुकाला, .....यौस झन समझिया मिं डरुणई....

पेंटिंग लगे बे, घंटी टांगी बे अशुभ कं शुभ करण लागि रयी,
क्वे दरौज तोड़ बेर वां गड्ड करण लाग रईं,
के हौल जब क्वे बताल घर मैं सितण, गिज़ाबाट खाण अशुभ हूँ,
कां रौला, कसी खाला, ......यौस झन समझिया मिं डरुणई l

पैल बखत यमदूत भैंस में ऊंछी, ऊन उनैं टैम लागि जांछी ,
आपण जिम्मेदारी निभे बे आदिम वीक बाट चै रूंछि,
आब स्पीडक जमान हैगो, यमदूतोंल लै जीप ट्रक ली हांली,
घर-घर जै निसकन बाट घट्टे टिप लि जानी,
भली कै जाया सड़क पर, तुम लै जाँ छा, ...यौस झन समझिया मिं डरुणई l

(एम्. एम्. बिष्ट)

Saturday, September 18, 2010

यादें

यादें

बादल उमडता घुमडता सा इक दिन,
चला आया छ्त पर जहां मैं खडा था;      
उम्मीद मेरी वो बरसेगा जम के,          
इलाके मैं सालों से सूखा पडा था ।

उडा ना वो बरसा, गरजने लगा पर,    
छ्त पर, मेरे काफ़ी नजदीक आकर;         
डरा सा,  निकलने लगा जो मैं छ्त से,     
रोका मुझे उसने आवाज देकर ।   

कडकते-चमकते मगर प्यार से फ़िर,   
बूंदों कि ममता से मुझको भिगाया;
अचम्भित  हुआ ’सूखी छ्त, तरबतर मैं’!,  
कुदरत ने कैसा करिष्मा दिखाया ।  

बतलाया बादल ने, जाता हिमालय वो,    
सागर से पानी की बुंदें उडाकर;          
देवों कि भूमि को करके नमन,   
लौटा वापिस, पहाडों को पानी पिलाकर ।

तभी रास्ते मैं, मेरे बीच आकर,        
मुझे एक ऊंची पहाडी ने रोका;     
बोला दुखी सा, उड्ते हो जग मैं,
तुमने कभी मेरे साथी को देखा ।

ढलती हुई सी उमर का वो होगा,  
दिखता है कैसा ये मुझको पता नहीं;   
बचपन मैं खेला था गोदी मैं मेरी,
बरसों हुऎ, फ़िर मुझसे मिला नही ।   

सुना है कहीं रहता नीचे, मैदानों मैं,
मिलैं भी तो कैसे, हम जड हैं अचल हैं;  
मिले जो कभी तुमको,खिड्की या छत पर,   
बतलाना हम भी अजर ना अमर हैं ।

कब ये लुढक कर चली जाये नीचे,   
तन कर अभी तक जो चोटी खडी है;   
मिले जख्म इतने,मुझे अपनों से ही,   
चुप हूं मगर दिल मैं पीडा बडी है ।   

वो खिड्की वो चौखट वो झूले वो रस्ते,   
तुम्हैं देखा था जिसने गिरते सम्भल्ते;    
उन्हे याद तुम्हारे बचपन कि बातें,   
चले क्यों नही उनसे मिलने को जाते।   

घनी धूप मैं अपने पत्तों के दामन से,    
ममता लुटा कर तुम्हैं था सुलाया;   
उन डालों व पत्तों ने पतझड से लडते,   
तुम्हैं याद कर अपना जीवन लुटाया ।    

वो चिडिया भी तकती, वो तितली भी रोती,   
जो हंसना सिखाती थी बचपन मैं तुझको;   
चले जाओ गांव मैं, ऊचे पहाडों मैं,
रोकें ना फ़िर वो, दुखी: होके मुझको ।   

बादल ने यादों को फ़िर से जगाया,    
जी रहा था मैं अब तक, जो बातें भुला के;
इठ्लाता बादल, गया उड वहां से,
बचपन कि यादों से मुझको रुला के ।   

अब मैं दुखी हूं सुन बादल कि बातें,   
बेचैन दिन मैं हुं,बोझिल हैं रातें;    
लग जांये पन्ख चला जांऊ उड के,   
अगर बस चले तो ना आउंगा मुड के।
अगर बस चले तो ना आउंगा मुड के।
.................................. मदन मोहन बिष्ट

Wednesday, September 15, 2010

स्वागतम

This Blog  is dedicated to all kumouni friends those who love kumoun, kumouni culture, customs, and language. specially my friends who are residing out of kumoun and eager to know more about kumoun and wants to share their views in concern.
उन सभी मित्रों का यहां मैं स्वागत करता हूं जो  कुमाउंनी भाषा, रीति रिवाज एवम संस्क्रृति से प्यार करते हैं। उन मित्रों को विशेष आमन्त्रण जो दूरस्थ स्थानों पर रहते हैं और अपनी संस्क्रृति से जुडे रहना चाहते हैं
दोस्तो  परिस्थिति वश हम आपण गौं गाड है दूर देश विदेश बसि गोइं, लेकिन आपण पहाड पन बिताई बचपनाक दिन जब याद ऊनी दिल मै कसक जै उठैं आपन  लोगों दगै आपण मनैकि बात आपण भाषा मैं कूण दिल कैं बहुत शकून पहुंचूं, यो blog  मै तुमर स्वागत छू.