यादें
चला आया छ्त पर जहां मैं खडा था;
उम्मीद मेरी वो बरसेगा जम के,
इलाके मैं सालों से सूखा पडा था ।
उडा ना वो बरसा, गरजने लगा पर,
छ्त पर, मेरे काफ़ी नजदीक आकर;
डरा सा, निकलने लगा जो मैं छ्त से,
रोका मुझे उसने आवाज देकर ।
कडकते-चमकते मगर प्यार से फ़िर,
बूंदों कि ममता से मुझको भिगाया;
अचम्भित हुआ ’सूखी छ्त, तरबतर मैं’!,
कुदरत ने कैसा करिष्मा दिखाया ।
बतलाया बादल ने, जाता हिमालय वो,
सागर से पानी की बुंदें उडाकर;
देवों कि भूमि को करके नमन,
लौटा वापिस, पहाडों को पानी पिलाकर ।
तभी रास्ते मैं, मेरे बीच आकर,
मुझे एक ऊंची पहाडी ने रोका;
बोला दुखी सा, उड्ते हो जग मैं,
तुमने कभी मेरे साथी को देखा ।
ढलती हुई सी उमर का वो होगा,
दिखता है कैसा ये मुझको पता नहीं;
बचपन मैं खेला था गोदी मैं मेरी,
बरसों हुऎ, फ़िर मुझसे मिला नही ।
सुना है कहीं रहता नीचे, मैदानों मैं,
मिलैं भी तो कैसे, हम जड हैं अचल हैं;
मिले जो कभी तुमको,खिड्की या छत पर,
बतलाना हम भी अजर ना अमर हैं ।
कब ये लुढक कर चली जाये नीचे,
तन कर अभी तक जो चोटी खडी है;
मिले जख्म इतने,मुझे अपनों से ही,
चुप हूं मगर दिल मैं पीडा बडी है ।
वो खिड्की वो चौखट वो झूले वो रस्ते,
तुम्हैं देखा था जिसने गिरते सम्भल्ते;
उन्हे याद तुम्हारे बचपन कि बातें,
चले क्यों नही उनसे मिलने को जाते।
घनी धूप मैं अपने पत्तों के दामन से,
ममता लुटा कर तुम्हैं था सुलाया;
उन डालों व पत्तों ने पतझड से लडते,
तुम्हैं याद कर अपना जीवन लुटाया ।
वो चिडिया भी तकती, वो तितली भी रोती,
जो हंसना सिखाती थी बचपन मैं तुझको;
चले जाओ गांव मैं, ऊचे पहाडों मैं,
रोकें ना फ़िर वो, दुखी: होके मुझको ।
बादल ने यादों को फ़िर से जगाया,
जी रहा था मैं अब तक, जो बातें भुला के;
इठ्लाता बादल, गया उड वहां से,
बचपन कि यादों से मुझको रुला के ।
अब मैं दुखी हूं सुन बादल कि बातें,
बेचैन दिन मैं हुं,बोझिल हैं रातें;
लग जांये पन्ख चला जांऊ उड के,
अगर बस चले तो ना आउंगा मुड के।
अगर बस चले तो ना आउंगा मुड के।
.................................. मदन मोहन बिष्ट
No comments:
Post a Comment