Saturday, September 18, 2010

यादें

यादें

बादल उमडता घुमडता सा इक दिन,
चला आया छ्त पर जहां मैं खडा था;      
उम्मीद मेरी वो बरसेगा जम के,          
इलाके मैं सालों से सूखा पडा था ।

उडा ना वो बरसा, गरजने लगा पर,    
छ्त पर, मेरे काफ़ी नजदीक आकर;         
डरा सा,  निकलने लगा जो मैं छ्त से,     
रोका मुझे उसने आवाज देकर ।   

कडकते-चमकते मगर प्यार से फ़िर,   
बूंदों कि ममता से मुझको भिगाया;
अचम्भित  हुआ ’सूखी छ्त, तरबतर मैं’!,  
कुदरत ने कैसा करिष्मा दिखाया ।  

बतलाया बादल ने, जाता हिमालय वो,    
सागर से पानी की बुंदें उडाकर;          
देवों कि भूमि को करके नमन,   
लौटा वापिस, पहाडों को पानी पिलाकर ।

तभी रास्ते मैं, मेरे बीच आकर,        
मुझे एक ऊंची पहाडी ने रोका;     
बोला दुखी सा, उड्ते हो जग मैं,
तुमने कभी मेरे साथी को देखा ।

ढलती हुई सी उमर का वो होगा,  
दिखता है कैसा ये मुझको पता नहीं;   
बचपन मैं खेला था गोदी मैं मेरी,
बरसों हुऎ, फ़िर मुझसे मिला नही ।   

सुना है कहीं रहता नीचे, मैदानों मैं,
मिलैं भी तो कैसे, हम जड हैं अचल हैं;  
मिले जो कभी तुमको,खिड्की या छत पर,   
बतलाना हम भी अजर ना अमर हैं ।

कब ये लुढक कर चली जाये नीचे,   
तन कर अभी तक जो चोटी खडी है;   
मिले जख्म इतने,मुझे अपनों से ही,   
चुप हूं मगर दिल मैं पीडा बडी है ।   

वो खिड्की वो चौखट वो झूले वो रस्ते,   
तुम्हैं देखा था जिसने गिरते सम्भल्ते;    
उन्हे याद तुम्हारे बचपन कि बातें,   
चले क्यों नही उनसे मिलने को जाते।   

घनी धूप मैं अपने पत्तों के दामन से,    
ममता लुटा कर तुम्हैं था सुलाया;   
उन डालों व पत्तों ने पतझड से लडते,   
तुम्हैं याद कर अपना जीवन लुटाया ।    

वो चिडिया भी तकती, वो तितली भी रोती,   
जो हंसना सिखाती थी बचपन मैं तुझको;   
चले जाओ गांव मैं, ऊचे पहाडों मैं,
रोकें ना फ़िर वो, दुखी: होके मुझको ।   

बादल ने यादों को फ़िर से जगाया,    
जी रहा था मैं अब तक, जो बातें भुला के;
इठ्लाता बादल, गया उड वहां से,
बचपन कि यादों से मुझको रुला के ।   

अब मैं दुखी हूं सुन बादल कि बातें,   
बेचैन दिन मैं हुं,बोझिल हैं रातें;    
लग जांये पन्ख चला जांऊ उड के,   
अगर बस चले तो ना आउंगा मुड के।
अगर बस चले तो ना आउंगा मुड के।
.................................. मदन मोहन बिष्ट

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